गायत्री और सावित्री- एक ही महाशक्ति
के दो रुप
आद्य शक्ति के दो पक्ष है । एक ज्ञान दूसरा विज्ञान । ज्ञान मे चेतना,
विचारणा,भावना,मान्यता एवं आकांक्षा सन्निहित है । इसका निवास मनुष्य के अंतराल मे
है । विज्ञान प्रकृति सम्पदा विस्तार और इसके इच्छानुसार कार्यान्वित करने की
विद्या को कहते है ।
ज्ञान मार्ग पर बढने से मनुष्य संयम और
संम्वर्धन का मार्ग प्राप्त करता है । प्रसन्न रहने और प्रेरणा देने की राह
प्राप्त करता है। आत्मा और परमात्मा का साक्षात्कार करता है । जीवन लक्ष्य की
पुर्णता तक पहुंचता है । महामानव , ऋषि , देवात्मा ,अवतार की श्रेणी मे जा पहुंचता
है । प्रत्यक्ष क्षेत्र मे आगे बढता है और परोक्ष मे ऊंचा उठता है । ज्ञान की
गायत्री की गरिमा ऐसी ही है ।
विज्ञान द्वारा शारीरीक क्षमता का सही सदुपयोग किया जाता है । काय संरचना
मे छिपे रहस्यमय केंन्द्रों को प्रसुप्त स्थिति से उबारकर जागृत स्थिति मे लाकर
उन्हे असाधारण रुप से सशक्त बनाया जाता है । यह सावित्री का स्वरुप है ।
गायत्री साधना से आत्मशोधन कीया जाता है । आत्म
सत्ता पर चढे जन्म-जन्मांतरों के कुसंस्कारों का , जन-सम्पर्क से मिलने वाले दोष-
दुर्गुणों का निराकरण किया जाता है । मानवी गरीमा के अनुरुप जीस समझदारी ,
ईमानदारी , जिम्मेदारी और बहादुरी की आवश्यकता पडती है उन्हे अर्जित किया जाता है
।बुद्धि मे दुरदर्शि विवेकशीलता- महाप्रज्ञा का समावेश होता
है । इन सब विशेशताओं के कारण मनुष्य ईसी जीवन मे
देवोपम स्थिती को प्राप्त करता है ।
सावित्री साधना मे शरीरगत अलौकीक शक्तियों को
प्रसुप्ति से ऊंचा उठाकर जागृति में लाया जाता है और यह जागरण इतना महत्वपूर्ण
सिद्ध होता है कि उसके सहारे दृष्य जगत को अनुकुल बनाया जा सके । इन उपलब्धियों को
सिद्धियां कहा जाता है ।
गायत्री साधना प्रधान है
क्योंकि सद्ज्ञान हस्तगत होने पर मनुष्य ऐसा व्यक्तित्व उपलब्ध करता है जो यदी
सम्पदा क्षेत्र की ओर ध्यान दे तो अपने या दुसरों के लिए विपुल वैभव उपलब्ध कर
सकता है । सावित्री विज्ञान की सीमा सांसारीक उपलब्धियों तक सीमित है । आवश्यक नही
की वैभव सम्पन्न व्यक्ती सद्ज्ञान का भी धनी हो । इसलिए सावीत्री को गौण माना गया
है । फिर भी उपास्य दोनो है । दोनो की ही अपने अपने स्थान पर आवश्यकता रहती है ।
इसलिए समन्वयवादी साधक दोनों का ही प्रयोग करते है और यथासमय उनकी क्षमताओं को
कार्यान्वित करते है ।
ब्रम्हाजी की दो पत्नियां
थी । प्रथम गायत्री और दुसरी सावित्री । इनमे एक परा प्रकृती है, दुसरी अपरा । परा
प्रकृति के अंतर्गत मन , बुद्धि , चित्त , अहंकार , ऋतूम्भरा , प्रज्ञा आदि का क्षेत्र आता है । दुसरी पत्नी सावित्री
( अपरा ) अपरा प्रकृती के अंतर्गत पदार्थ
, चेतना आदी का अंतर्भाव होता है । पदार्थों की समस्त हलचले - गतिविधियां उसी पर
निर्भर है ।परमानुओं की भ्रमणशीलता , रसायनों की प्रभावशीलता , विद्युत , ताप ,
प्रकाश , चुम्बकत्व, ईथऱ आदी उसी के भाग है ।
ईसी अपरा
प्रकृती को सावित्री कहते है।कुण्डलिनी इसी दुसरी शक्ती का नाम है।
अपरा प्रकृती--
सावित्री--कुण्डलिनी से ही प्राणियों का शरीर संचालन होता है और संसार का
प्रगतीचक्र चलता है । निष्क्रियता को सक्रियता के रुप मे बदलने का प्रेरणा केन्द्र
जिस महतत्व मे सन्निहित है , उसे अपरा प्रकृती कहते है । सत , रज , तम , पंचतत्व ,
तन्मात्राएं आदि का सुत्र संचालन यही शक्ति करती है । सिद्धियां और वरदान इसी के
अनुग्रह से मिलते है । मनुष्य शरीर मे आरोग्य , सौन्दर्य , दीर्घजीवन , बलिष्ठता ,
स्फूर्ति , साहसिकता आदि अगणित विशेषताएं इसी पर निर्भर है । यों इसका विस्तार तो सर्वत्र है , पर पृथ्वि मे धृव केन्द्र मे और शरीर के मुलाधार चक्र मे इसका विशेष केन्द्र है साधना प्रयोजन मे इसी को कुण्डलिनी शक्ती कहते
है ।
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