कुण्डलिनी ----Blog 3
सावित्री - पदार्थ शक्ति
ईस
अपरा प्रकृती से ही प्रणियों का शरीर संचालन होत है और संसार का प्रगती चक्र चलता
है । शरीर मे श्वास-प्रश्वास , रक्त संचार , निद्रा - जागृती , पाचन - विसर्जन ,
ऊष्मा - ऊर्जा , वीद्युत प्रवाह आदि अगणित क्रिया कलाप काया क्षेत्र मे चलते है ।
संसार का हर पदार्थ क्रियाशील है । उत्पादन अभिवर्धन और परिवर्तन का गतिचक्र इस
सृष्टि मे अनवरत गति से चलता है । प्राणी और पदार्थ सभी अपने- अपने ढंग से प्रगति
पथ पर द्रुतगती से दौड रहे है । विकास की दिशा मे कण - कण को धकेला जा रहा है ।
निष्क्रियता को सक्रियता के रुप मे बदलने का प्रेरणा केन्द्र जिस महतत्व मे
सन्निहित है , उसे अपरा प्रकृति कहते है । सत , रज , तम , पंचतत्व , तन्मात्राएं
आदि का सुत्र संचालन यही शक्ति करती है । सिद्धियां और वरदान इसी के अनुग्रह से
मिलते है । ब्रम्हा जी की द्वितीय पत्नी सावित्री इसी को कहते है ।
गायत्री और सावित्री दोनों परस्पर पुरक है । इनके मध्य कोई प्रतिद्वंदिता
नही । दोनो अविच्छिन्न रुप से एक - दुसरे के साथ गुंथी हुई है । पदार्थों का सुत्र
संचालन चेतना के बिना संभव नही । यह सृष्टि - क्रम दोनों के संयुक्त प्रयास से चल
रहा है । जड - चेतन का संयोग बिखर जाए तो फिर दोनों मे से एक का भी अस्तित्व शेष न
रहेगा । दोनो अपने मुल कारण मे विलिन हो जाएंगे । य़े सृष्टि के प्रगती-पथ के दो
पहिये है । एक के बिना दुसरा निरर्थक है ।
अध्यात्म क्षेत्र मे ज्ञान भाग को “ दक्षिण
मार्ग “ कहते है
। उसे निगम , राजयोग , वेद मार्ग आदि भी कहा गया है । दुसरे क्रिया भाग को वाम
मार्ग , आगम , तन्त्र , हठयोग आदि के रुप
मे प्रयुक्त किया गया है । दोनों की पृथकता , प्रतिकुलता हानिकारक है । इससे कलह
और विनाश उत्पन्न होता है । गायत्री और सावित्री का समन्वय बिठाना अति आवश्यक है ।
गायत्री साधना से चेतना पर चढे कषाय - कल्मषों का निवारण किया जाता है यह एक पुण्य
प्रक्रिया है । इससे आत्मसत्ता के दिव्य स्वरुप का निखार होता है और इस आत्मचेतना
का प्रभाव भौतीक क्षेत्र मे उत्पन्न करने के लिए सावित्री साधना का उपयोग करना
पडता है और ईसीलिए गायत्री और सावित्री एक दुसरे की पुरक है , साधना क्षेत्र के दो
पहिये है , एक के बिना दुसरा निरर्थक है । गायत्री रुपी आत्मा को संसारी कर्तव्यों
की पुर्ती के लिए जिस सामर्थ्य की आवश्यकता पडती है , उसे सावित्री साधना से
सम्पन्न किया जाता है । पंचकोशी साधना एवं कुण्डलिनी जागरण इसी को कहते है । यहा
ऋद्धि - सिद्धियों के भाण्डागार है ।
गायत्री महाशक्ति की उपासना मनुष्य की भावनाओं , आकांक्षाओं , उमंगों ,
प्रतिभा तथा प्रज्ञा को ऊभारती है और सावित्री आयु , प्रजा , कीर्ति , धन आदि
लौकिक सम्पदाओं को प्रदान करती है । गायत्री को एकमुखी और सावित्री को पंचमुखी कहा
गया है । गायत्री आत्मिकी है और सावित्री भौतीकी । दोनों का अपना - अपना महत्व है
। सर्व सुविधाओंके रहते हुए भी ज्ञान चेतना के अभाव मे मनुष्य दुर्बुद्दिवश
दुष्पवृत्ति अपनाता है और विकट परिस्थितियों मे पडता है । इसिलिए जन - जन के
कल्यान के लिए संध्या वंदन के रुप मे नित्य गायत्री उपासना का विधान है । त्रिकाल
संध्या न बन पडे तो उसे एक बार प्रातःकाल तो किसी न कीसी रुप मे अनिवार्य रुप से
करना ही चाहिए ।
सावित्री उपासना कठिन है । उसमे प्राण विद्युत को उस स्तर तक उभारना पडता
है कि आकाश मे कडकती बिजली की तरह वह प्रकट हो । सावित्री का आव्हान सुर्य शक्ती
के रुप मे करना पडता है और इस योग्य बनना पडता है कि अन्तराल मे छिपी हुई ऋद्धि -
सिद्धियां काया मे प्रकट हो और साधक को ओजस्वी , तेजस्वी , तपस्वी , मनस्वी और
ऋषितुल्य स्तर का बना दे ।
---------------क्रमशः-----------
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