जन्म और मृत्यु......
जन्म और मृत्यु के बिच के यात्रा को जीवन कहा गया है । जन्म के समय का अनुभव और मृत्यु के समय का अनुभव एक जैसा ही है । जन्म के समय मनुष्य मां के सुरक्षित गर्भ को छोडकर संसार मे आने से डरता है और मृत्यु के समय अपने घर , परिवार , मित्रों , धन , सम्पत्ती को छोडकर जाने से डरता
है । किन्तु सत्य से घबराकर ऊससे पिछा नही छुडा सकते ।
है । किन्तु सत्य से घबराकर ऊससे पिछा नही छुडा सकते ।
-- कर्मणा जीयते जतुः कर्म्मणैव प्रलीयते ।
सुखं दुःखं भयं क्षेमं कर्म्मणैवाभि पद्यते ।। ( भा. 10 -24-21 )
सुखं दुःखं भयं क्षेमं कर्म्मणैवाभि पद्यते ।। ( भा. 10 -24-21 )
जीव कर्म द्वारा ही जन्म ग्रहण करता है , कर्म द्वारा ही मृत्यु प्राप्त करता है एवं कर्म द्वारा ही सुख , दुःख ,भय एवं कुशलता प्राप्त करता है ।
पुर्व शरीर के वियोग या विस्मृती को मृत्यु कहा जाता है एवं अपुर्व शरीर सहित संयोग या वर्तमान शरीर में अभीनिवेश को जन्म कहा जाता है ।
जिसने भी जन्म लिया है , ऊसकी मृत्यु होगी , किन्तु मृत्यु होने पर पुनः जन्म लेगा , यह प्रमाणित नहीं । जितने समय तक जीवन का शरीर से संबंध रहेगा , उतने समय तक सुख व दुःख से वह निवृत्त नही होगा ।
शरीर त्रिविध है । अन्नमय कोषात्मक पंच भौतीक शरीर को स्थुल शरीर कहा जाता है । प्राण , मन और विज्ञान रुपी त्रिकोनात्मक सप्तदशा वाले शरीर को सुक्ष्म शरीर कहा जाता है ।
मृत्यु दो प्रकार की होती है - काल मृत्यु व अकाल मृत्यु । व्याधि-स्वरुप निर्णय एवं यंत्रणा को कम या समाप्त कर देना वैद्य के सामर्थ्य मे है , किन्तु वैद्य काल मृत्यु का निवारण नही कर सकता । विविध व्याधि , सर्प , व्याघ्र , कुंभी , दस्यु व शत्रु समान बहुत प्राणी , नाना प्रकार के अभिचारीक कर्म - ये सभी मृत्यु के द्वार है । जब विभिन्न कारणों से मानव मृत्यु के सम्मुख होता है तो धन्वंतरी भी उसे बचा नही पाते । औषधि , तपस्या , दान , माता- पिता व बंधु-बांधव कोई भी काल मृत्यु से मनुष्य को बचाने मे समर्थ नही होते । रसायन , तपस्या , जप और योगसिद्ध महात्मागण अकाल मृत्यु का उपशमन तो कर सकते है , किन्तु काल मृत्यु का वे भी निवारण नहीं कर सकते ।
मनुष्य जितने समय तक अर्थोपार्जन करने मे सक्षम रहता है , उतने समय तक उसके स्त्री-पुत्र व परिवार उसके प्रति अनुरक्त रहते है । किन्तु वार्धक्य व जराग्रस्त होकर उसका शरीर जब जर्जर हो जाता है , तब ऊसे अक्षम मानकर उसकी अवज्ञा करनी शुरु हो जाती है । ऐसी अवस्था मे भी मनुष्य मे वैराग्य नही आता । इसके पुर्व उसने जिन स्वजनों का पोषण किया था , उन्ही का पोष्य बन वह उसी गृह मे वास करता है , उसका शरीर क्रमशः रोग ग्रस्त हो मृत्यु की ओर बढता जाता है ।
जब मृत्यु का समय आता है , तब उसके क्लेश की परीसीमा नही रहती ।
जब उसके शरीर की प्राणवायु निकलने को होती है , तब उसके नेत्र बाहर नीकलने को होते है , उसे श्वास लेने मे कष्ट होता है तथा वायु संचार की समस्त नाडीयां अवरुद्ध हो जाती है । इससे उसे श्वास लेने और खांसी आने पर भी बहुत कष्ट होता है और उसके कण्ठ से घर्र-घर्ऱ की आवाज होती है । ईसी को मृत्युघंटा कहा गया है ।
जब उसके शरीर की प्राणवायु निकलने को होती है , तब उसके नेत्र बाहर नीकलने को होते है , उसे श्वास लेने मे कष्ट होता है तथा वायु संचार की समस्त नाडीयां अवरुद्ध हो जाती है । इससे उसे श्वास लेने और खांसी आने पर भी बहुत कष्ट होता है और उसके कण्ठ से घर्र-घर्ऱ की आवाज होती है । ईसी को मृत्युघंटा कहा गया है ।
---सभी मनुष्यों की मृत्यु कष्ट प्रद नही होती । मृत्यु शैया पर शायीत मनुष्य शोकाकुल हो माता-पिता व भगवान को पुकारता है , किन्तु अधिकतर मनुष्य ऐसी अवस्था मे कुछ भी बोल नही पाते । ऐसे समय मे उसकी अतृप्त भोग वासना , प्रिय भोग्य वस्तु उसे दुःख प्रदान करती है । मृत्यु के समय मनुष्य चारों ओर अंधकार ही अंधकार देखता है । वह पृथ्वी को अकाश और आकाश को पृथ्वी के रुप मे देखता है तथा कभी-कभी वह अपने को महासमुद्र में डुबता -उतराता महसुस करता है ।
....ऐसे समय मे वह भयभीत हो मूर्च्छित हो जाता है ।
....ऐसे समय मे वह भयभीत हो मूर्च्छित हो जाता है ।
मृत्यु- पथगामी मनुष्य का मुख सूख जाता है और वह बार-बार जल पीना चाहता है , वह बिस्तर पर छटपटा कर करवटें बदलता है , बार-बार मूर्च्छित हो जाता है , अपने हाथों व पैरों को फेंकता रहता है , कभी खाट पर सोने की ईच्छा करता है , तो कभी जमीन पर सोने की ईच्छा करता है । वह उसी अवस्था मे मुत्र व विष्ठा का त्याग कर देता है ।
-ऐसे समय वह चिन्ता करता रहता है की उसकी समस्त सम्पत्ति कौन प्राप्त करेगा , इन्हे व अपने परीवार जनों को छोडकर वह कहा जायेगा ?
मन के दुःख से व्याकुल हो अश्रुमोचन करता हुआ वह बेहोश हो जाता है और अगले किसी भी क्षण उसकी मृत्यु हो जाती है ।
-ऐसे समय वह चिन्ता करता रहता है की उसकी समस्त सम्पत्ति कौन प्राप्त करेगा , इन्हे व अपने परीवार जनों को छोडकर वह कहा जायेगा ?
मन के दुःख से व्याकुल हो अश्रुमोचन करता हुआ वह बेहोश हो जाता है और अगले किसी भी क्षण उसकी मृत्यु हो जाती है ।
-- स्थुल शरीर का नाश अर्थात स्व कारण से पंच भूत मे लय हो जाना ही मृत्यु है ।
प्राकृतिक नियम के अनुसार पदार्थ का ध्वंस अवश्यम्भावी है , इसका विरोध करने की सामर्थ्य कीसी मे नहीं है ।
प्राकृतिक नियम के अनुसार पदार्थ का ध्वंस अवश्यम्भावी है , इसका विरोध करने की सामर्थ्य कीसी मे नहीं है ।
------ श्री वासुदेव कंस से कहते है----
• मृत्यु जन्मवतां दीर देहेन सह जायते ।
अद्य वा स्यातशन्ताने वा मृत्युवे प्राणिनां धृवः ।।
अर्थात-- हे विर ! जन्मधारी जीव के शरीर के संग ही मृत्यु अनभिव्यत्काकार में उत्पन्न होती है , अतः अभी हो या सौ वर्ष बाद हो , प्राणी मात्र की मृत्यु धृव सत्य है ।
• मृत्यु जन्मवतां दीर देहेन सह जायते ।
अद्य वा स्यातशन्ताने वा मृत्युवे प्राणिनां धृवः ।।
अर्थात-- हे विर ! जन्मधारी जीव के शरीर के संग ही मृत्यु अनभिव्यत्काकार में उत्पन्न होती है , अतः अभी हो या सौ वर्ष बाद हो , प्राणी मात्र की मृत्यु धृव सत्य है ।
-- मृत्यु के समय हमारा भौतीक शरीर समाप्त हो जाता है , इसका विखण्डन हो जाता है । ऐसा होते ही इच्छा शरीर स्वतः ही सक्रिय हो जाता है और अपने गती से कार्य करने लगता है । ईस इच्छा शरीर की भी एक सीमा है , एक निश्चीत जीवन है । इसके बाद इस इच्छा शरीर का भी विखण्डन हो जाता है और सुक्ष्म शरीर क्रियाशील हो जाता है ।
-- इस प्रकार जो लौकीक मृत्यु होती है , वह तो केवल इस शरीर के बाहयाकार की होती है । उसकी मुल आत्मा की मृत्यु नही होती । आत्मा इससे सुक्ष्म शरीर मे जाकर क्रियाशील हो जाती है । सुक्ष्म शरीर भौतीक शरीर का ही सुक्ष्म रुप है अतः उसमे भी इच्छाएं , आकांक्षाएं , भावनाएं बराबर जीवित रहती है । सुक्ष्म शरीर इन इच्छाओं , आकांक्षाओं को पुर्ण करने मे निरन्तर प्रयासरत व व्यग्र रहता है ।
-- मानव शरीर इच्छाओं की पुर्ती के लिए प्रयत्न कर सकता है , परन्तु सुक्ष्म शरीर मे यह क्षमता नही होती है । सुक्ष्म शरीर मे स्थीत आत्माएं इसी संसार के आस -पास भटकती रहती है और प्रयत्न मे रहती है की कोई मानव शरीर मिल जाये , जिनके माध्यम से वे अपनी इच्छाएं पुर्ण कर सके ।भोग अथवा लालसा के कारण आत्मा मुक्त नही हो पाती है और इसी कारण जब तक कोई नया शरीर न मिले तब तक भटकते रहना एक प्रकारसे उनकी विवशता होती है परन्तु कई बार आत्मा की मुक्ति अपनी पारीवारीक दायित्वों की पुर्ती न होने के कारण भी नही हो पाती है । ऐसे कई कारण हो सकते है , जैसे उसने अपनी वसीयत कहीं गुप्त रुप से रख दी हो , अथवा धन का संचय कर कही छिपा दिया हो और अपने परीवार जनों को देना चाहता हो । ये भी हो सकता है कि परिवार जनों के ऊपर कोई विपत्ती आने वाली हो अथवा पुत्री का विवाह जहां तय किया जा रहा हो वह परीवार ठीक ना हो , आदि बातों को वह आत्मा जब तक अपने परीवार जनों से नही कह देती तब तक वह निरन्तर एक दबाव मे रहती है , उनकी मुक्ती नही हो पाती ।
***** मृत्यु के ऊपरांत मानव का क्या होता है ? ----
यह प्रश्न अत्यन्त जटील एवं प्राचीन काल से चला आ रहा है और प्रायः अनुत्तरीत चला आ रहा है । पुराणों के अनुसार जब व्यक्ती मर जाता है तो ऊसकी आत्मा अतिवाहिक शरीर धारण कर लेती है जिसमे केवल तीन तत्व - अग्नी , वायु एवं आकाश ही शेष बचे रहते है , जो शरीर के ऊपर उठ जाते है और पृथ्वी , जल नीचे रह जाते है ।
यह प्रश्न अत्यन्त जटील एवं प्राचीन काल से चला आ रहा है और प्रायः अनुत्तरीत चला आ रहा है । पुराणों के अनुसार जब व्यक्ती मर जाता है तो ऊसकी आत्मा अतिवाहिक शरीर धारण कर लेती है जिसमे केवल तीन तत्व - अग्नी , वायु एवं आकाश ही शेष बचे रहते है , जो शरीर के ऊपर उठ जाते है और पृथ्वी , जल नीचे रह जाते है ।
हिन्दु धर्म में मनुष्य शरीर के - प्राण , अपान , समान , व्यान , उदान का विस्तृत विवेचन मिलता है कि किस प्रकार मनुष्य अपने जीवन मे इन पंच प्राणों मे यात्रा करता है और इसमे सबसे ऊपर स्थित प्राण में आत्मा का निवास है । इसी प्रकार भुलोक से ऊपर छः और लोक है । इस प्रकार कुल सात लोकों से यह वायुमण्डल बना है । प्रथम लोक भूलोक , द्वितीय लोक भुवः लोक , तृतीय स्वः लोक , चतुर्थ मह लोक , पंचम जन लोक , षष्ठम तप लोक और सप्तम सत्य लोक है । इन सात लोकों मे मनुष्य की आत्मा अपने जीवन मे किये गये कर्मों के आधार पर स्थित हो जाती है ।
सबसे ऊपर के लोक मे देवताओं का निवास माना गया है और ऊनकी दायी ओर उन देवताओं का लोक माना गया है जो ब्रम्ह लोक की ओर अग्रसर होते है । उसके नीचे एक ऐसे लोक को बताया गया है जिसे नरक कहते है और उसी के सामने प्रेत लोक होना बताया गया है । इस लोक मे वे आत्माएं रहती है जो भटकी हुयी होती है और निरंतर त्रस्त होती है । इसके नीचे मनुष्य लोक और पशु लोक बताया गया है ।
इस सम्बंध मे विवेचन तो और विस्तार से दीया जा सकता है लेकिन मूल बात यह है कि जीवन को किस तरह से जिया जाएं कि जिससे मृत्यु भय समाप्त हो , अकाल मृत्यु प्राप्त न हो और मृत्यु के पश्चात सुक्ष्म शरीर ब्रम्हांड मे भटके नहीं और वह अपने परीवार- कुल को आशीर्वाद प्रदान करता हुआ मुक्ति को प्राप्त करे ।
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जब व्यक्ती अपने अंतीम समय मे होता है , तो एक क्षण ऐसा आता है जब वह तंद्रा मे चला जाता है और चित्रगुप्त के द्वारा उसके जीवन का सारा लेखा-जोखा उसकी आखों के सामने चलचित्र की भांती तैर जाता है........
चित्रगुप्त यानि वो घटनाएं भी , जो ऊसके सीवा कीसी और को नही पता होती , उसकी गोपनीय से गोपनीय बात भी चित्र रुप मे स्पष्ट हो जाती है .....
और इन विभिन्न कर्मों मे से वह अगले जीवन के लिए कर्म का चयन करता है.....
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चित्रगुप्त यानि वो घटनाएं भी , जो ऊसके सीवा कीसी और को नही पता होती , उसकी गोपनीय से गोपनीय बात भी चित्र रुप मे स्पष्ट हो जाती है .....
और इन विभिन्न कर्मों मे से वह अगले जीवन के लिए कर्म का चयन करता है.....
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